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गुरु के सिर को शव से अलग करते हैं अघोरी:हवन कुंड के चारों ओर रखते हैं नरमुंड; किन्नर अखाड़े में चल रही अघोर साधना

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महाकुंभ में अखाड़े और समुदाय कई धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, जिनमें से कुछ बेहद रहस्यमयी और विशेष होते हैं। ऐसी ही एक विशेष पूजा है- अघोर काली पूजा। आधी रात को किन्नर अखाड़े में यह पूजा होती है। हवन कुंड के चारों ओर नरमुंड रखकर अघोरी इस पूजा को करते हैं। आम लोग इस पूजा को देखकर डर ही जाएंगे। दैनिक भास्कर एप की टीम इस रहस्यमयी पूजा को देखने और समझने के लिए महाकुंभ मेला क्षेत्र के सेक्टर-16 स्थित किन्नर अखाड़े पहुंची। सिलसिलेवार पढ़िए अघोर काली पूजा कैसे होती है, नागा से कैसे अलग हैं अघोरी और नरमुंड कहां से आते हैं… हम रात 11:30 बजे किन्नर अखाड़े पहुंचे। अखाड़े के भीतर प्रवेश करते ही एक अद्भुत दृश्य दिखाई दिया। एक त्रिकोणीय हवन कुंड बना दिखा, जिसके सामने और पीछे की तरफ एक त्रिशूल गड़ा हुआ था। त्रिशूल पर बहुत सारे मुंडों की माला लटकाई गई थी। दाहिनी तरफ मां काली की एक भव्य प्रतिमा स्थापित थी, जिसके सामने पूजा की सामग्री रखी हुई थी। वहां कुछ लोग हाथ जोड़े खड़े थे। हमने वहां श्रद्धालुओं से पूछा कि क्या हो रहा है? उनमें से एक ने बताया कि यह अघोर काली की पूजा है। हमने वहां खड़े एक अघोरी से पूछा कि पूजा कब से चल रही है और कब तक चलेगी? अघोरी ने बताया- महाकुंभ की शुरुआत 13 जनवरी से हुई है। उसी दिन से आधी रात को किन्नर अखाड़े में अघोर काली पूजा की जा रही है। यह पूजा तंत्र विधान के अनुसार होती है। उन्होंने हमें भी पूजा देखने के लिए कहा। हमने देखा कि अघोरी हवन कुंड को फूलों और दीयों से सजा रहे हैं। त्रिकोणीय हवन कुंड के चारों ओर रखे मुंड, ऊपर जलते हुए दीपक लगाए गए। फिर हवन कुंड को रंगोली से सजाया गया। डमरू की गूंज और मंत्रोच्चारण के साथ शुरू हुई पूजा
करीब आधे घंटे तक हवन कुंड को सजाने के बाद उसमें मोटी-मोटी लकड़ियां डाली गईं। फिर लंगोट पहने एक अघोरी आए, वह हवन कुंड के सामने आकर बैठ गए और मंत्रोच्चारण करने लगे। हमने वहां खड़े एक अघोरी से पूछा कि यह कौन हैं, इनका क्या नाम है? उन्होंने बताया कि यह महामंडलेश्वर मणिकंदन महाराज हैं, जो पूरी अघोर पूजा को संपन्न करेंगे। उसी समय, हवन कुंड के पास रखे 10 डमरू को वहां खड़े शिष्यों ने अपने हाथों में उठा लिया और मंत्रोच्चारण के साथ डमरू बजाना शुरू कर दिया। डमरू की गूंज और मंत्रोच्चारण की आवाजें माहौल को रहस्यमय और आध्यात्मिक बना रही थीं। वहां खड़े लोगों ने हाथ जोड़कर उस अद्भुत दृश्य को निहारना शुरू कर दिया। यह साधना, तंत्र विद्या, आध्यात्मिक शक्ति और आस्था का एक अद्वितीय संगम थी, जो साधकों को एक अलग ही दुनिया में ले जा रही थी। महाकुंभ में तमिलनाडु से आए महामंडलेश्वर मणिकंदन रोज रात 12 बजे से 2 बजे तक इस पूजा को करते हैं। इस दौरान वे अपने शिष्यों को दीक्षा देते हुए अघोर साधना के महत्व और उसकी परंपराओं को भी समझाते हैं। मणिकंदन का कहना है कि यह पूजा अघोर तंत्र की तांत्रिक पूजा है। यह पूजा मणिकर्णिका घाट और कामाख्या मंदिर में होती है
महामंडलेश्वर मणिकंदन ने बताया कि यह पूजा जनता के कल्याण और खुशहाली के लिए की जाती है। इसमें तंत्र और धर्म का एक अनूठा मेल है, जो आध्यात्मिक उन्नति के द्वार खोलता है। यह विशेष साधना आमतौर पर काशी के मणिकर्णिका घाट और कामाख्या देवी मंदिर में की जाती है, लेकिन महाकुंभ में इस पूजा का महत्व और भी बढ़ जाता है। मणिकंदन महाराज ने कहा- ऐसा माना जाता है कि महाकुंभ का पवित्र समय सभी देवी-देवताओं की उपस्थिति के साथ पूर्ण होता है। यही कारण है कि यह समय तंत्र साधना के लिए भी सबसे उत्तम माना जाता है। मान्यता है कि आधी रात का समय तंत्र साधना के लिए अधिक फलदायी होता है, क्योंकि इस समय ब्रह्मांडीय ऊर्जा अपने चरम पर होती है। इसलिए, किन्नर अखाड़े में आधी रात को ही पूजा होती है, ताकि साधकों को इसका लाभ मिल सके। अघोरी जीवन और रहस्य
अब हमारे मन में कुछ और सवाल थे, जो अघोरी के जीवन से जुड़े थे। उनके बारे में भी मणिकंदन जी ने बताया… क्या अघोरी इंसान का मांस खाते हैं?
मणिकंदन महाराज ने बताया कि यह बात सही है कि हम इंसान का मांस खाते हैं, क्योंकि हमें अपनी साधना करनी होती है। उसमें अमावस्या की रात शक्तियों को सिद्ध करना होता है, तब हम अघोर काली मां को मांस अर्पित करते हैं। वह कहते हैं कि ‘अघोर’ का अर्थ है ‘जो घोर नहीं’ अर्थात सरल, सहज और उलझनों से रहित। यह एक ऐसा मार्ग है, जो आडंबरों से परे, सीधे परमात्मा से मिलन का, ब्रह्मांड के परम सत्य को जानने का सीधा और सरल रास्ता है। उसी रास्ते को हासिल करने के लिए हम प्रत्येक दिन मां अघोर काली की पूजा करते हैं, जो कि एक तांत्रिक पद्धति होती है। अघोरियों का भी होता है परिवार?
मणिकंदन महाराज ने कहा कि हमारे अनुष्ठान की पद्धति, रीति-रिवाज पूरी तरह से अलग होती है। हमें ब्रह्मचर्य जीवन का पालन नहीं करना पड़ता। हमने अपने गुरु की आज्ञा से अपना विवाह किया था। हमारी पत्नी भी अघोर काली की साधना करती है। हम लोग यह साधना जनकल्याण के लिए करते हैं। अघोरियों के पास कहां से आती है मानव खोपड़ी?
हमने मणिकंदन से पूछा कि इतनी सारी मानव खोपड़ी कहां से आती हैं? उन्होंने ऑफ कैमरे पर बताया कि ये खोपड़ियां उन साधकों की होती हैं, जिन्होंने जीते जी अपना देह त्यागने के बाद अपनी खोपड़ी अघोरियों को अर्पित करने की इच्छा व्यक्त की थी। कुछ मामलों में, ऐसा भी माना जाता है कि ये खोपड़ियां उन लोगों की होती हैं, जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है। इन खोपड़ियों को अघोरी पवित्र मानते हैं और इनका उपयोग वे साधना में करते हैं। नागा से कितने अलग होते हैं अघोरी?
मणिकंदन ने नागा और अघोरी में अंतर बताते हुए कहा कि नागा साधु मुख्य रूप से वैदिक परंपरा के अंतर्गत आते हैं। वह शिव या विष्णु के उपासक होते हैं, जबकि अघोरी साधु तांत्रिक परंपरा का अनुशरण करते हैं। वे अघोर काली के उपासक होते हैं। नागा साधुओं का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान प्राप्त करना, धर्म की रक्षा करना और मोक्ष की प्राप्ति है। वहीं, अघोरियों का उद्देश्य शरीर और संसार के पार जाकर स्वयं को परम सत्य से जोड़ना है। नागा साधु हिंदू धर्म की रक्षा के लिए परंपरागत रूप से योद्धा भी माने जाते हैं, जबकि अघोरी सामाजिक मान्यताओं को पार कर अघोर साधना करते हैं। जिसे अंत समय अपना उत्तराधिकारी चुनते हैं, उसे ही मिलता है गुरु का मुंड मणिकंदन महाराज कहते हैं- गुरु का बहुत महत्व होता है। गुरु के सानिध्य में ही अघोर पूजा की क्रिया सीखी जाती है। गुरु अपने अंतिम समय में शिष्यों में से किसी एक को अपने मुंड का उत्तराधिकारी बनाते हैं। जब गुरु की मृत्यु हो जाती है तब शिष्य गुरु के मुंड को धड़ से अलग कर अपने पास रखते हैं। गुरु के मुंड को सबसे पहले मां अघोर काली को अर्पित किया जाता है। फिर उसके बाद अमावस्या की रात में कपाल क्रिया कर शक्तियों को सिद्ध किया जाता है।

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