महेश्वर में नदी उत्सव के दूसरे दिन रेवा सोसाइटी प्रांगण में अनूठा सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने को मिला। महाराष्ट्र के पिंगूली गांव से आए आदिवासी कलाकारों ने कठपुतली के माध्यम से महाभारत के बाद की कथा ‘सौरी भीषण’ प्रस्तुत की। यह प्रस्तुति एक मां और उसके पुत्र की कहानी पर आधारित थी। गुरु गणपत मसगे के नेतृत्व में 11 कलाकारों की टीम ने यह प्रस्तुति दी। मसगे, जो छठी पीढ़ी से इस कला को संजोए हुए हैं, ने बताया कि यह निमाड़-मालवा क्षेत्र में इस तरह की पहली प्रस्तुति है। यह कला ठाकर समुदाय की 12 लोक कलाओं में से एक है। कार्यक्रम में दूसरी प्रस्तुति पद्मश्री कालूराम बामनिया द्वारा दी गई, जो टोंकखुर्द (देवास) से पधारे थे। उन्होंने मात्र 9 वर्ष की आयु से भजन गायन शुरू किया था। यह कला उन्हें अपने पिता देवीलाल बामनिया और दादा राम बामनिया से विरासत में मिली है। कालूराम जी, जो मूल रूप से कुमि ग्राम कन्हेरिया के निवासी हैं, ने गुरु वंदना से शुरुआत की और फिर विभिन्न कबीर भजनों की प्रस्तुति दी। उनके साथ हारमोनियम पर राम प्रसाद परमार, ढोलक पर दीपक नेमा, नगाड़े पर सज्जन परमार और सह-गायक के रूप में उत्तम सिंह बामनिया ने संगत की। उनके भजनों में ‘मन लगा यार मेरा फकीरा’, ‘सदा नाम रस बिनी चादर झीनी’ और ‘घणा दिन सो लियो अब तो जाग मुसाफिर’ जैसे प्रसिद्ध कबीर भजन शामिल थे, जिन्होंने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
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