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गुल्लक फोड़कर जुटाया कैरम बोर्ड का पैसा:गांव में पहली बार हुई चैंपियनशीप तो खेल को जाना, जीत चुकी हैं 30 पदक

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गांव में स्टेट कैरम का गेम देखकर इसको खेलने की ललक जागी। पिताजी किसान थे, घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इस कारण खेलने का सोच भी नहीं सकती थी। मन में बार-बार खेलने की इच्छा जागती थी, लेकिन घर की परिस्थिति देखकर हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। इसके बारे में दोस्तों से बातचीत की तो उन्होंने बताया- इस गेम का एक बोर्ड 10 हजार रुपए का आता है। इतने रुपए तो हमारे पिताजी की पूरे महीने की कमाई भी नहीं थी। मैंने उसी समय अपना सपना छोड़ दिया। यह कहना है पश्चिमी चंपारण की नेशनल कैरम बोर्ड प्लेयर रिंकी कुमारी का। रिंकी कुमारी पश्चिमी चंपारण के चनपटिया की रहने वाली है। उनका बचपन काफी गरीबी में बीता। बावजूद इसके वह अब तक नेशनल लेवल पर 11 और स्टेट लेवल पर 19 पदक जीत चुकी हैं। आज मैं बिहारी में बात पश्चिमी चंपारण के रिंकी की… रिंकी कहती हैं, “पिताजी की तबीयत हमेशा खराब रहती थी, उन्हें कैंसर था तो खेती भी सही से नहीं कर पाते थे। एक भाई और 4 बहन थे। पूरे परिवार की जिम्मेदारी पिता के ऊपर थी। घर चलाना मुश्किल हो रहा था। कमाई का कोई दूसरा जरिया नहीं था, जिसके करण पिताजी खेती करते थे। हम सभी भाई बहन सरकारी स्कूल में ही पढ़ते थे। गांव में पहली बार खेलते देखी तो रोमांचित हो गई एक दिन मेरे गांव में स्टेट चैंपियन कैरम गेम होने वाला था। उसका चारों तरफ प्रचार कराया गया। जिस प्लेयर को उस गेम में हिस्सा लेना था, उनके बड़े-बड़े बैनर पोस्टर चारों तरफ लगाए गए थे। आसपास उन सभी प्लेयर की चर्चा हो रही थी। उस गेम को देखने के लिए मैं भी अपने दोस्तों के साथ चली गई। वहां उन प्लेयर्स को देखने के लिए काफी लोगों की भीड़ लगी थी। पूरा गेम देखकर वापस घर आ गई और वैसे ही बनने की सोचने लगी। मेरे मन में भी यही चल रहा था की अगर मैं भी ऐसे ही गेम खेलूंगी तो लोग मुझे भी देखने आयेंगे। 10 हजार रुपए की कीमत सुन मन बदल ली रिंकी कुमारी ने बताया- कैरम गेम के बारे में मुझे उतनी जानकारी नहीं थी। अगले दिन अपने एक दोस्त से इस गेम के बारे में पूछी तो उन्होंने बताया कि कैरम बोर्ड 10 हजार रुपया का आता है। घर में खेलने के लिए छोटा कैरम लिया जा सकता है, लेकिन उस स्तर पर खेलने के लिए बढ़िया कैरम बोर्ड लेना होगा। एक बोर्ड की कीमत 10 हजार सुनकर मैंने उसी समय उस गेम को खेलने का सपना छोड़ दिया। 10 हजार रुपया तो मेरे पिताजी की पूरे महीने की कमाई भी नहीं थी। पिताजी कैंसर से पीड़ित थे, जिसके करण वह सोच रहे थे कि जल्दी जल्दी अपने सभी लड़कियों की शादी करा दें। कार्ड बोर्ड पर खेलना सीखा रिंकी ने बताया- भले की मैंने सपना छोड़ दिया था, लेकिन मेरे दिमाग में हमेशा वही प्लेयर घूम रहा था, जिसको देखने के लिए उमड़ी भीड़ नाच रही थी। इसके बारे में सबसे पहले अपनी बड़ी बहन को बताया। फिर मैं और बड़ी बहन ने एक कार्ड बोर्ड को काटकर एक बोर्ड बनाया। फिर अलग-अलग सिक्का को रखकर खेलना शुरू किया। अब घर में रोज उसी कार्ड बोर्ड पर 1 रुपया, 2 रुपया और 5 रुपया के सिक्का से कैरम खेलती थी। रोज कार्ड बोर्ड का बोर्ड फट जाता तो, फिर हम अगले दिन एक नया बोर्ड बनाते थे। एक दिन पिताजी ने कार्ड बोर्ड पर सिक्कों को रखकर गेम खेलते देखकर हंसे और पूछा- यह क्या खेल रही है? तब हमने उन्हें अपने सपने के बारे में बताया। पिताजी उस दिन तो कुछ नहीं बोले, लेकिन अगले दिन खुद पूछे कि इसे सीखने और खेलने के लिए कहां जाना पड़ेगा। मेरे घर से कुछ ही दूरी पर एक क्लब था, जहां यह गेम सिखाया जाता था। अगले दिन मैं और मेरे पापा दोनों उस क्लब में गए और इस गेम के बारे में पूरी जानकारी ली। पिताजी ने उसी समय क्लब में एडमिशन करा दिया और कहा- घर कैसे चलेगा, इसकी चिंता नहीं करना। तुम बस खेलो। सब कुछ सही से चलेगा। रोज पैदल जाती थी क्लब मैं रोज गेम सीखने के लिए पैदल ही क्लब जाया करती थी। काफी प्रैक्टिस के बाद मेरा सलेक्शन एक डिस्ट्रिक गेम के लिए हुआ। मैं अपने पहले ही प्रतियोगिता में जीत गई। उसके बाद मेरे कोच ने भी मेरे ऊपर और ध्यान देना शुरू किया। तब मुझे स्टेट चैंपियनशिप के लिए पटना भेजा गया। पटना में भी मैं जीत गई। इसके बाद मेरा सिलेक्शन नेशनल गेम के लिए भी होने लगा। इसी बीच चनपटिया का कैरम क्लब किसी कारण से बंद हो गया। फिर मुझे प्रैक्टिस में काफी दिक्कत होती थी। अब मुझे खुद का बोर्ड लेना था। मैं और बड़ी बहन ने मिलकर अपने घर में रखे गुल्लक को फोड़ दिया, जिसमें से 8 हजार रुपया निकला था। फिर मैंने अपने पापा के साथ जाकर 7 हजार रुपया का एक कैरम बोर्ड खरीदा और अपने मुहल्ले के लड़कों के साथ कैरम पर प्रैक्टिस करने लगी। इसके बाद स्टेट और नेशनल गेम खेलती रही। गेम खेलने पर कुछ पैसे मिलते थे। अब घर की भी स्थिति पहले से थोड़ी ठीक हो गई थी। जब सब ठीक चल रहा था तो पिताजी की मृत्यु हो गई सब कुछ ठीक चल रहा था, तब-तक एक दिन पिताजी की मृत्यु हो गई। हमारे लिए बहुत बड़ा सदमा था। काफी दिन तक सदमे से बाहर नहीं निकल पाई थी। तभी एक दिन एक न्यूजपेपर में डाक विभाग में नौकरी का इश्तहार देखी। वहां मैंने अप्लाई कर दिया और मुझे खेल कोटा से डाक विभाग में क्लर्क के पद पर नौकरी मिल गई है।” रिंकी अभी महाराष्ट्र में डाक विभाग में क्लर्क के पद पर है। अभी तक 1 नेशनल सीनियर चैंपियनशिप में विनर और 3 मैच में रनर अप रही है। 1 जूनियर सीनियर चैंपियनशिप में विनर और 2 मैच में रनर अप रही है। 4 सब जूनियर मैच, 1 सीनियर स्टेट चैंपियनशिप और 5 जूनियर स्टेट चैंपियनशिप जीत चुकी है। ——————– यह भी पढ़े… कॉल सेंटर में काम करने वाली चेतना कैसे पहुंची अमेरिका:रिश्तेदार ने समस्तीपुर से दिल्ली बुलाया, रिसेप्शनिस्ट बन गईं; आज यूएस, सिंगापुर, चीन में कंपनियां कभी 3 हजार रुपए महीने की सैलरी पर कॉल सेंटर में काम करने वाली चेतना झांब आज करोड़ों रुपए की मालकिन हैं। पैसे की तंगी के कारण चेतना 10 रुपए बचाने के लिए 5 किलोमीटर तक पैदल चलती थीं। आज चीन में खुद की मैन्युफैक्चरिंग कंपनी है। चेतना ने कॉल सेंटर में काम करने के बाद एयर होस्टेज की नौकरी की। फिल्मों में काम किया, हॉलीवुड मूवी भी प्रोड्यूस की। एक समय कोरोना ने जब सब कुछ बर्बाद कर दिया तब चेतना ने अमेरिका में दूसरी कंपनी के प्रोडक्ट भी बेचे। चेतना बिहार के समस्तीपुर जिले की रहने वाली हैं। पूरी खबर पढ़ें…

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